Sunday, July 8, 2012

हमारी दुनिया में ईश्वर

पांच दशक से ज्यादा बीत गए। वाराणसी के राजकीय महिला अस्पताल में एक बच्चा आंखें खोलता है। पिता ने उसका नाम पहले से सोच रखा है और मन ही मन यह भी तय कर लिया है कि उसके नाम के आगे जाति सूचक पहचान नहीं चस्पां की जाएगी। वह मानते थे कि जब तक यह बच्चा बड़ा होगा, तब तक विकसित हो चुके भारत में जातिप्रथा समाप्त हो चुकी होगी, क्योंकि ईश्वर ने सबको समान बनाया है।
उस शिशु के पितामह संन्यासी थे। वर्णाश्रम व्यवस्था के हामी होने के कारण वे अपना घर छोड़कर काशी के मुमुक्षु भवन में रहते थे। उनका लगाव भगवाधारी संन्यासियों के मुकाबले पास बहती गंगा से कहीं ज्यादा था। वह उसे तारनहारिणी नदी के मुकाबले पालनहारिणी मानते थे। वह तरह-तरह के मनुष्यों में ईश्वर का रूप देखते थे और अक्सर आश्रम की प्रार्थना सभाओं से नदारद हो जाते थे, क्योंकि उन्हें लगता था कि भगवान तो कण-कण में बसता है, हम क्यों नहीं उसके सम्मान में अपने आसपास की भूमि और मां गंगा को साफ रखें! परंपरा के अनुसार, शिशु को पितामह के आशीर्वाद के लिए लाया गया। ‘स्वामी जी’ ने उस बच्चे को नाम दिया ‘रामखिलौना।’ वह अबोध नहीं जानता था कि उसने जिस समाज में जन्म लिया है, उसमें एक अदृश्य सत्ता का वास है, जिसका एक नाम ‘राम’ भी है।
बच्चा थोड़ा बड़ा हुआ। उसे टॉन्सिल की बीमारी थी और अक्सर गले के साथ कान की नसों में भी सूजन आ जाती थी। इसके कारण देर रात भीषण दर्द से उपजी व्याकुलता उसे सपनों की चैन भरी दुनिया से वापस खींच लाती थी। जब वह रोता था, तो मां उसके कान में गुनगुने तेल डालकर कहती थी कि जोर-जोर से बोलो, आ जा राम आ जा राम, अपने भक्त की लाज बचा जा राम। उन दिनों एक पंडित जी भी उस शहर के अफसरों के यहां घूमा करते थे। मालूम नहीं कि पंडित जी ने धर्म की कोई शिक्षा-दीक्षा ली थी या नहीं, पर वह अधिकारियों की औरतों, चपरासियों और ड्राइवरों में बेहद लोकप्रिय हुआ करते थे। वह अक्सर हैरतअंगेज कल्पनाओं के जरिये समझाते कि राम शब्द यदि गलती से भी मुंह से निकल गया, तो मरता हुआ पापी तक स्वर्ग का हकदार हो जाता है। और तो और, यदि लय में मरा-मरा गाया जाए, तो भी राम-राम हो जाता है। राम-नाम, यानी शत्-शत् दुखों की एक दवा।
उनकी किस्सागोई का ही असर था कि बच्चे अक्सर खेल-खेल में मरा-मरा के जरिये राम-राम और राम-राम के जरिये मरा-मरा का अभ्यास करते। इस खेल में वे अबोध भी शामिल थे, जिनके परिवार हिंदू धर्म में यकीन नहीं करते थे। उन्हें अभी बड़ा होना था और यह भी जानना था कि धर्म अगर जोड़ता है, तो तोड़ता भी है। साथ ही यह भी समझना था कि आप किसी धर्म को मानें या न मानें, पर पूरी दुनिया में अलग-अलग स्वरूपों में इसी का बोलबाला है। धर्म के नाम पर उद्धार होता है, तो संहार भी।
बाद में इलाहाबाद के टैगोर टाउन से राजकीय इंटर कॉलेज तक पैदल जाते समय हरिश्चंद्र शुक्ल नाम के एक सहपाठी ने पीपल का बड़ा-सा पेड़ दिखाते हुए कहा, ‘एहमें ब्रह्मदेव रहत हैं, हियां सिर झुकावा करौ।’ किसी अज्ञात भय, आकर्षण या लोभ में ईश्वर के सामने झुकने के आदी किशोर ने उस पेड़ को भी अपनी आस्थाओं के संसार में जगह दे दी। बाद में उसका इलाहाबाद छूट गया, पर जब वह उस शहर में जाता, तो अपने बचपन से जुड़ी सारी जगहों का चक्कर जरूर लगाता। पीपल का वह पेड़ कई सालों तक उसके सिर को जुंबिश देता रहा। एक दिन संत अंथोनी स्कूल की ढाल से नीचे उतरते हुए उसने आदतन सिर झुकाया और आंखें उठाकर देखा, तो पाया कि पेड़ नदारद है। सड़क चौड़ी करने के लिए सरकारी एजेंसियों ने उसे काट दिया था। यह बात अलग है कि इसके बावजूद राजमार्ग उस चौराहे पर संकरा है, क्योंकि पेड़ के नीचे बरसों पहले किसी ने शिव की पिंडी और हनुमान जी की ‘स्थापना’ कर दी थी। इस देश में पेड़ काटे जा सकते हैं, पर आराधना स्थल नहीं हटाए जा सकते। धर्म को आप मानें या न मानें, वह आपके जीवन में दखल रखता है।
कहने की जरूरत नहीं कि वह बच्चा अब प्रौढ़ हो चला है। उसे आप शशि शेखर के नाम से जानते हैं। पर यह कहानी सिर्फ मेरी नहीं है। इस देश और दुनिया के अधिकतर बच्चों की जिंदगी में ईश्वर ऐसे ही चुपचाप दाखिल हो जाता है और फिर जीवन भर उनके इर्द-गिर्द रहता है। इसीलिए गए बुधवार से बेचैन हूं। वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने वह कण खोज लिया है, जो भगवान के 99.99997 प्रतिशत करीब है। क्या वे सही दिशा में बढ़ रहे हैं? अगर हां, तो सोचता हूं कि 48 साल में वे यहां तक पहुंच गए हैं, हो सकता है अगले कुछ वर्षों में वे पूरी तरह ईश्वरीय सत्ता के रहस्य लोक में दाखिल हो जाएं। अगर ऐसा होता है, तो क्या ‘धर्म’- जो अब तक तर्कों से ज्यादा आस्था के सहारे हजारों साल से हम पर हुकूमत कर रहा है- उसकी हम कोई नई व्याख्या रचेंगे?
कहीं ऐसा तो नहीं होने जा रहा है कि कुछ साल बाद हमारी सारी उपमाएं बदल जाएं? लोग ‘हिग्स बोसोन’ अथवा ऐसी ही किसी वैज्ञानिक शब्दावली को अपनी दिनचर्या का हिस्सा बना दें? तब क्या हमारी आस्थाओं, आकर्षणों, भय के कारकों और माया-मोह के बंधनों की शक्ल-सूरत ऐसी ही रह जाएगी? राजनेता शपथ किसके नाम पर लेंगे? गवाह खुद को सच्च साबित करने के लिए किसकी सौगंध लेंगे? लोग किसको साक्षी मानकर विवाह बंधन में बंधेंगे? बच्चों के नाम किन पर रखे जाएंगे? सब उलटा-पुलटा हो जाएगा।
आप ध्यान दें। 1969 में चंद्रमा पर मनुष्य के कदम रखने के साथ ही पता चला कि यह उपग्रह अंदर से काफी बदसूरत है। तभी से शायरों ने धीमे-धीमे सौंदर्य के इस सर्वाधिक आकर्षक प्रतिमान को तिलांजलि दे दी। विज्ञान की भले ही यह अद्भुत खोज रही हो, परंतु सामान्य जनों के जीवन में सदियों तक रस घोलने वाला यह उपग्रह और इसकी आभा धुंधला गई है। इंसान का इससे क्या फायदा होगा, यह देखना बाकी है, पर मानवीय भावना का एक हिस्सा यदि इससे रसहीन हो गया, तो फौरी तौर पर इसमें किसका नुकसान हुआ? यकीन जानिए, मैं वैज्ञानिक शोध के खिलाफ नहीं हूं। आइन्स्टीन ने जो खोज की, उससे मानवता का बेहद भला हुआ, पर परमाणु भय का हौआ भी जुड़वे भाई की तरह जन गया। सवाल उठता है, चांद पर अपोलो-11 की पहुंच ने उसके मिथक को तोड़ दिया। कहीं अब भगवान की बारी तो नहीं?
अगर ऐसा होता है, तो अगला गांधी ईसा की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए अपने विरोधियों की यह कहकर कैसे अनदेखी करेगा कि हे भगवान्, उन्हें माफ करना, वे नहीं जानते कि वे क्या कर रहे हैं। या, दर्द से बेहाल बच्चे का मनोबल बढ़ाने के साथ खुद को तसल्ली देने के लिए कोई मां राम की जगह किसकी गुहार लगाएगी? ‘गॉड’ का काम उसका ‘पार्टिकल’ कैसे कर सकता है?